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आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति और समाज का असंवेदनशील व्यव्हार

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बिलासपुर, 19 मई 2025।
आयु समूह 14 से 25 के विच आत्महत्या एक बड़ी समस्या बन गया है। इसे केवल धर्म दर्शन में आलोचना पाप बताकर नियंत्रित नहीं किया जा सकता। दुनिया भर में हर साल 8 लाख लोग आत्महत्या करते हैं इनमें से 135000 भारतीय है। दुनिया में भारत की आबादी 17.5% है। हमने अपनी शिक्षा पद्धति को प्रतिस्पर्धा के नाम पर कब गला काट प्रतिस्पर्धा बना लिया नहीं पता, हमारा पूरा ध्यान सफलता की ओर है और हमारा न्यूनतमखर्च उससे पैदा होने वाली समस्याओं के नियंत्रण में है। जब कभी भी कोई आटों मोबाइल कंपनी गति पर शोध करती है और पैसा खर्च करती है तो उतना ही शोध गति के ब्रेक सिस्टम पर भी करती हैं। सामान्य सी बात है यदि कोई कार जीरो से 60 की स्पीड 10 सेकंड में पहुंचती है तो उसका ब्रेक प्रणाली भी उतनी ही सशक्त होनी चाहिए। हमने ऐसा समाज बनाया जहां जेई, जोईई नीट, आईएएस, आईपीएस जैसे परीक्षा में सफलता के लिए क्या दिया जाए पर लाखों रुपए खर्च हो रहा है। और यह खर्च भारत देश में छोटे जिलों में भी हो रहा है पर तैयारी के दौरान अवसाद की पहचान पर खर्च जीरो है। यही कारण है कि भारत में 14 से 25 वर्ष के आयु समूह में आत्महत्या की दर चिंतनीय है। 
पालक बनना जितना कठिन है। उतना ही कठिन सफल संतान बनाना है और इस संघर्ष में अवसाद के क्षण कब आ जाते हैं पर हमारे यहां प्रणाली में कोई शोध नहीं होता निजी क्षेत्र के स्कूल हो या सरकारी आप सर्वेक्षण कर लें मनोविज्ञान, दर्शनशास्त्र के पारंगत कहां काम पाते हैं। उन्हें बेकाम मना जाता है।
एक उद्योगपति एक फैक्ट्री की संरचना के लिए जितना पैसा खर्च करता है इसका सबसे कम प्रतिशत वह अग्नि रक्षा प्रणाली पर करता है। इसी तरह स्कूल गणित, भौतिक, विज्ञान के शिक्षक पर बहुत पैसा खर्च करता है और उसके मुकाबले साइकोलॉजी पड़े व्यक्ति को स्कूल में नहीं रखते कल्पना करें किसी स्कूल में एक परिवार के तीन बच्चे पढ़ते हैं और उनसे इस स्कूल को हर महीने फीस के रूप में ₹30000 मिलता है। एक बच्चा आत्महत्या कर ले तो पालक अपने अन्य दो बच्चों को उसे स्कूल से निकाल लेगा। स्कूल का आर्थिक नुकसान हुआ और स्कूल की प्रतिष्ठा अलग खराब हुई। यह भारत में केवल स्कूल के संदर्भ में नहीं कोचिंग सेंटर में भी हो रहा है। पर हमारी मानव संसाधन बढ़ने की प्रणाली इसे समझना नहीं चाहती है। तभी तो देश में यूथ के बीच आत्महत्या की दर लगातार बढ़ रही है। और हम हर समस्या का निदान धर्म और वेद में देख रहे हैं। 
हम उन सब परिवारों के दुख में शामिल हैं जिन्होंने इस समस्या को झेला है और उम्मीद करते हैं की दुख की घड़ी ही हमें रचनात्मकता की ओर ले जाती है।