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संसदीय बहस पर चुनाव प्रचार भारी

24HNBC .देश की संसद ज्यादा अहम है या राज्यों के विधानसभा चुनाव का प्रचार? संसदीय राजनीति और उस पर आधारित शासन प्रणाली में भरोसा करने वाले किसी भी समझदार व्यक्ति का जवाब यही होगा कि संसद ज्यादा अहम है, संसदीय कामकाज ज्यादा अहम हैं। चुनाव प्रचार अपनी जगह है लेकिन संसदीय कामकाज रोक कर चुनाव प्रचार नहीं किया जा सकता है। चुनाव की पूरी प्रक्रिया अंततः संसद और विधानसभाओं के लिए ही है संसद या विधानसभाएं चुनाव का उपकरण नहीं हैं, जो उनका मनमाना इस्तेमाल किया जाएगा। तभी यह बहुत अश्लील है, जो देश की तमाम राजनीतिक पार्टियों ने संसद के बजट सत्र की कार्यवाही दो हफ्ते पहले इस नाम पर स्थगित करा दी कि पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं और उनको प्रचार करना है। अगर चुनाव प्रचार के नाम पर संसद का कामकाज रोका जाता रहा तो ध्यान रहे इस देश में हर साल कोई न कोई चुनाव होता रहता है और इन दिनों तो नगर निगम के प्रचार में भी प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्री हिस्सा लेते हैं, ऐसे में तो कभी संसद चल ही नहीं पाएगी!अगर प्रादेशिक राजनीतिक दल चाहते भी थे कि चुनाव प्रचार के लिए संसद की कार्यवाही स्थगित की जाए तो यह केंद्र सरकार और संसद के दोनों सदनों के सभापतियों की जिम्मेदारी थी कि वे इससे इनकार करते। पार्टियों को संसदीय कार्यवाही की गरिमा और जरूरत समझाते। आखिर संसद सिर्फ चुनाव जीत कर आने वाले लोगों के बैठने और चकल्लस करने की जगह नहीं है। वहां देश का भाग्य तय होता है। देश के 138 करोड़ लोगों की किस्मत से जुड़े फैसले होते हैं। वह कानून बनाने की जगह है और देश के नागरिकों के जीवन को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर बहस की जगह है। लेकिन ऐसा लग रहा है कि क्षेत्रीय पार्टियों से ज्यादा सत्तारूढ़ दल को संसद स्थगित कराने की जल्दबाजी थी। तभी प्रादेशिक नेताओं से बात करने की बजाय पहले ही संसदीय कार्यमंत्री ने संकेत देना शुरू कर दिया था कि सत्र जल्दी स्थगित हो जाएगा।सोचें, इस साल का बजट सत्र कितने अरसे के बाद हो रहा था और कितना जरूरी था? पिछले साल संसद का शीतकालीन सत्र नहीं हो सका था। कोरोना वायरस की महामारी के नाम पर उस सत्र को टाल दिया गया था और कहा गया था कि उसे बजट सत्र के साथ मिला दिया जाएगा। इस तरह दो सत्र एक साथ हो रहे थे। बजट सत्र वैसे भी अहम होता है लेकिन इस बार तो दो सत्र एक साथ हो रहे थे। फिर भी बजट सत्र का पहला हिस्सा दो दिन पहले खत्म किया गया और दूसरा हिस्सा जो आठ अप्रैल तक चलने वाला था उसे 23 मार्च को ही खत्म कर दिया गया। बजट सत्र को दो हिस्सों में इसलिए बांटा जाता है कि बीच के एक महीने के अवकाश में संसदीय समितियां बजट प्रावधानों पर विचार करती हैं और अपने सुझाव देती हैं। फिर उन पर संसद में बहस होती है और एक-एक मंत्रालय के अनुदान मांगों को मंजूरी दी जाती है। फिर वित्त विधेयक के साथ बजट पास होता है।लेकिन क्या यह कहा जा सकता है कि बजट सत्र में इस प्रक्रिया का पालन किया गया और बजट के प्रावधानों पर बहस हुई? यह भी ध्यान रखने की बात है कि पिछले एक साल से संसद का सत्र ठीक से नहीं चल रहा है। पिछले साल भी बजट सत्र पूरा नहीं चल सका था। कोरोना के मामले कम थे फिर भी सत्र पहले ही स्थगित कर दिया गया। उसके बाद मॉनसून सत्र देर से हुआ औऱ बहुत जल्दी खत्म कर दिया गया और फिर कोरोना की मजबूरी के बहाने शीतकालीन सत्र का आयोजन नहीं हुआ। हालांकि इस दौरान सारे दूसरे काम सहज तरीके से होते रहे। यहां तक कि चुनाव प्रचार और राजनीतिक कामकाज भी रूटीन में चलता रहा। पिछले साल नवंबर-दिसंबर में बिहार में विधानसभा के चुनाव हुए तो प्रधानमंत्री से लेकर सारे केंद्रीय मंत्रियों ने खूब जम कर प्रचार किया लेकिन ठीक उसी समय होने वाला शीतकालीन सत्र टाल दिया गया। सोचें, राजनीतिक रैलियों में कोरोना नहीं फैलता है पर संसद सत्र में कोरोना फैल जाएगा!पहले कोरोना की मजबूरी में संसद का सत्र टाला गया और अब चुनाव प्रचार के नाम पर सत्र स्थगित कर दिया गया। अगर यह परंपरा बन जाए तो संसद का कोई भी सत्र ठीक से नहीं चल पाएगा। अगले साल यानी 2022 में बजट सत्र के समय पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे होंगे। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर और गोवा में फरवरी-मार्च में चुनाव हैं। उसी समय बजट सत्र शुरू होता है। तो क्या अगले साल भी बजट सत्र को चुनाव प्रचार के लिए रोका जाएगा? अगले साल के अंत में हिमाचल प्रदेश और गुजरात में चुनाव हैं तो क्या साल के अंत में होने वाला शीतकालीन सत्र टाल दिया जाएगा ताकि नेता वहां जाकर प्रचार कर सकें? यह गजब सिर्फ दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में ही हो सकता है कि संसद सत्र को छोटा कर दिया जाए ताकि नेता चुनाव प्रचार कर सकें!ध्यान संसद सिर्फ एक इमारत का नाम नहीं है जो एक नई इमारत बना देने से इसका महत्व बढ़ जाएगा और न संसद की बैठक कोई खानापूर्ति का काम है। यह देश, लोकतंत्र और संविधान सबकी आत्मा है। संसद में सिर्फ विधायी कामकाज नहीं होते हैं और न यह अपना अपना पक्ष-विपक्ष साबित करने के लिए बहसों की जगह है। यह सिर्फ हंगामा और शोर-गुल करके लोगों का ध्यान आकर्षित करने की जगह भी नहीं है। हालांकि ये सब इसका अनिवार्य हिस्सा हैं लेकिन असल में संसद इससे बड़ी चीज है। वहां बनने वाला एक कानून करोड़ों लोगों के जीवन को अच्छे या बुरे तरीके से प्रभावित कर सकता है। तभी संसद हर कानून के एक-एक पहलू पर विचार करने और उसे अधिकतम लोगों के लिए उपयोगी बनाने के उपाय करने वाली जगह है। अगर एक गलत कानून बन जाए तो वहीं हाल होगा, जो कृषि कानूनों को लेकर इन दिनों देखने को मिल रहा है। सरकार ने जोर-जबरदस्ती कानून पास किया और आज सारे देश में किसान आंदोलित हैं।दुर्भाग्य की बात है कि अभी जो लोग सत्ता में बैठे हैं उन्हें इसकी परवाह नहीं है। ज्यादा दुर्भाग्य इसलिए कि सरकार के मुखिया पहली बार संसद पहुंचे थे तो उन्होंने उसकी देहरी पर माथा टेका था। तब उम्मीद जगी थी कि संसद की पुरानी गरिमा बहाल होगी। एक बार फिर संसद सार्थक और सकारात्मक बहसों की जगह बनेगा। लेकिन इसका उलटा हुआ है। पिछले सात साल में संसद की बैठकें लगातार कम होती गई हैं। संसदीय समितियों की भूमिका नगण्य रह गई है। संसद में पेश होने वाली सीएजी की रपटों का आना बंद हो गया है। ध्यान नहीं आ रहा है कि पिछले सात साल में किसी मसले पर संसद की संयुक्त समिति बनी है या प्रवर समिति का गठन किया गया है। संसद को एक तरह से सरकार का एक्सटेंशन बना दिया गया है। अपने बहुमत का इस्तेमाल कर सरकार मनमानी कर रही है। कभी किसी बहाने से तो कभी किसी बहाने से संसद की जरूरत और उसका महत्व कम किया जा रहा है। सरकार अध्यादेश के जरिए कानून लागू कर रही है और संसद की आधी-अधूरी बैठकों में उसे जोर-जबरदस्ती पास करा रही है। यह संसदीय लोकतंत्र के लिए बहुत चिंताजनक स्थिति है।