नई दिल्लीः दिल्ली हाईकोर्ट का कहना है कि दुर्भाग्य से हमारी न्यायिक प्रणाली में पीड़ितों को हमेशा नजरअंदाज कर दिया जाता है, जिस वजह से हमें पीड़ितों के अधिकारों को लेकर और सजग होने की जरूरत है.की रिपोर्ट के मुताबिक, अदालत ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 357 के तहत अदालत द्वारा पीड़ित व्यक्तियों को मुआवजे या हर्जाने देने का प्रावधान है, जिसका पालन करना अनिवार्य है और यह सभी अदालतों का कर्तव्य है कि वह आपराधिक मामले में उचित एवं निष्पक्ष मुआवजे पर विचार कर इसका आदेश दें.इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 27 नवंबर के अपने फैसले में कहा, ‘सिर्फ अपराधी को दंड देने से ही पीड़ित परिवार को सांत्वना नहीं मिल जाती. इसके लिए पीड़ितो को मुआवजा या राहत राशि देने की भी जरूरत है. अदालत द्वारा पीड़ितों की मौद्रिक क्षतिपूर्ति करने से पीड़ित परिवार के सदस्यों के घावों पर मरहम लगाने का प्रभावी उपाय है.’पीठ ने कहा कि हर आपराधिक मामले में दोषी ठहराए जाने के बाद दिल्ली में निचली अदालतों को एक प्रक्रिया का पालन करना चाहिए, जिसमें हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को हर महीने विचार किए गए ऐसे मामलों का एक मासिक स्टेटमेंट और एक सारांश भेजने का निर्देश दिया जाए, जिसमें मुआवजा दिए जाने वाले मामलों की विस्तृत जानकारी शामिल हो.पीठ ने कहा कि पीड़ितों को मुआवजे का भुगतान करने और मामले की सुनवाई में अभियोजन पक्ष की लागत आरोपी की भुगतान करने की क्षमता पर निर्भर करेगी.पीठ ने कहा, ‘अगर आरोपी की क्षमता पीड़ित को मुआवजा या राहत राशि देने की नहीं है और अगर आरोपी द्वारा दिया गया मुआवजा पीड़ित के पुनर्वास के लिए पर्याप्त नहीं है तो अदालत को सीआरपीसी की धारा 357 के तहत इस तरह के मामले को दिल्ली स्टेट लीगल सर्विसेज अथॉरिटी (डीएसएलएसए) के समक्ष भेजना चाहिए ताकि पीड़ित मुआवजा कोष के तहत उन्हें मुआवजा दिया जा सके.’अदालत ने अपने आदेश में एक विक्टिम इम्पैक्ट रिपोर्ट बनाने पर भी जोर दिया, जिसे दोषसिद्धि के बाद हर आपराधिक मामले में डीएसएलएसए द्वारा दायर किया जाना है.इसके बाद अभियोजन पक्ष द्वारा पीड़ित पर अपराध के प्रभाव का आकलन किया जाएगा और आरोपी की क्षमता के अनुरूप पीड़ित को मुआवजे का भुगतान किया जाएगा.अदालत का कहना है कि सीआरपीसी की धारा 357 (3) के तहत कानून को अधिकतर नजरअंदाज किया जाता है.